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सफर - मौत से मौत तक….(ep-10)

नन्दू की लाइफ अच्छी खासी चलने लगी थी, रोज सुबह जल्दी उठकर रिक्शा लेकर भागना और शाम को जल्दी आने की कोशिश करना, कई दिन कोई सवारी मंगलम या मंडावली की तरफ की मिल जाती तो नंदू दिन में घर आ जाता और थोड़ी देर आराम करके शाम के टाइम निकलता था।
   जिंदगी का दूसरा नाम संघर्ष था, लेकिन जिंदगी भर संघर्ष करने को क्या कहेंगे, खुशी के दिन आने वाले थे, पता चला कि नंदू बाब बनने वाला था, गौरी माँ……
ये खबर सुनकर घर मे एक बार फिर खुशी का माहौल छा गया था, लेकिन कब तक रहती खुशी, कहते है ना दुख साथी और खुशी मेहमान होती है। वही किस्सा नंदू का भी रहा।
 
 
"दो दिन हो गए कुछ खाया नही है बाबूजी ने, बस मूंग की दाल और दलिया ही जबरदस्ती खिला रहे है उन्हें"  नंदू ने कहा जो कि अभी अपने बाबूजी को लेकर हॉस्पिटल गया था।

"देखो….बिना टेस्ट किये हम कोई फैसला नही ले सकते आपने बताया कि आपके बाबूजी को मधुमेह और रक्तचाप की समस्या है जिनकी दवाई हर दिन खानी पड़ती है"डॉक्टर ने कहा।

"जी….दवाईयां चली हुई है, लेकिन पहले भूख वगेरा लगती थी , कोई तकलीफ जैसी भी नही है, फिर भी पता नही क्यो नही खाते" नंदू ने कहा।

"आपको कोई तकलीफ है, जब आप खाना खाने लगते हो तो कैसा लगता है, मतलब क्यो नही खा पाते" डॉक्टर ने चिंतामणि से कहा।

"भूख भी लगती है, और मन भी करता है खाने का लेकिन जैसे ही कुछ मुंह मे चबाकर निगलने की सोचता हूँ तो कोई अंदर से बाहर को धक्का जैसा देता है, निगला ही नही जाता, उल्टी जैसी आती है" चिंतामणि ने कहा।

"गले मे दर्द तो नही होता" डॉक्टर ने पूछा।

"नही, दर्द तो नही होता" चिंतामणि बोला।

डॉक्टर ने अपने हाथ से चिंतामणि के गले को स्पर्श करते हुए देखा
"सूजन भी नही है, लेकिन ऐसा लग रहा है पेट मे सब ठीक है लेकिन गले मे कोई प्रॉब्लेम है…….अच्छा ये बताओ….जब निगलने लगते हो तो सांस लेने में तो कोई समस्या नही आती ना"  डॉक्टर बोला।

"अब खाना गले मे अटकने लगेगा तो सांस लेने में तो दिक्कत आएगी ना….मैं जब खाना जबरदस्ती  निगलता हूँ तो वो गले तक जाकर ऐसे अटक जाता है जैसे रास्ते मे कुछ है, और जब तक उसे निगलता या उगलता नही तब तक जान हथेली पर होती है, सांस बिल्कुल बंद, जल्दी जल्दी थूकना पड़ता है खाना" चिंतामणि ने कहा।

"तो पतली खिचड़ी दलिया निगलने में नही आती कोई दिक्कत" डॉक्टर ने कहा।

"आती है लेकिन कम आती है, उतनी नही आती जितनी रोटी और चावल में आती है" चिंतामणि ने कहा।

नंदू ध्यान से सुन रह था, पिताजी इतने दिनों से इतनी तकलीफ छिपा रहे थे, जब अति होने लगी तब जाकर उन्होंने ये बात बताई।

थोड़ी देर बाद डॉक्टर ने एक इन्हेलर पंप और कुछ टेबलेट पर्चे में लिख दिया और कहा- "आप ये मेडिशन और पम्प यूज करो, मेरे ख्याल से सांस की प्रॉब्लम है, सांस की नली में अंदर से सूजन होने में अक्सर ऐसे लक्षण आते है,  एक हफ्ते की दवाई लिखी है, एक हफ्ते बाद एक बार और आकर दिखा लेना, अगर कोई फर्क हुए तो दवाई बढ़ा देंगे, और अगर कोई फर्क पड़ता मालूम नही हुआ तो दवाई बदल देगें।"

डॉक्टर से परामर्श लेकर नंदू बाबूजी को लेकर बाहर की तरफ चल पड़ा, अब किसी मेडिकल स्टोर में जाना था, नंदू ने बाहर आकर बाबूजी को रिक्शे में बैठाया और रिक्शे को लेकर किसी दवाई की दुकान की तरफ ले गया। अभी थोड़ी दूर ही पहुँचा था कि रास्ते मे एक बहुत लाचार सा भिखारी बैठा था, जो हर किसी से पैसे मांग रहा था,
  "भगवान के नाम पर इस गरीब का भला कर दो, कुछ दे दो, भूखा रहा नही जाता अब….ये गरीब मर जाएगा इसे बचा लो" भिखारी बोल रहा था।

नंदू ने देखा, उसका एक पैर छोटा था, शायद किसी बीमारी के चलते एक पैर काट दिया गया हो, नंदू को बहुत दया आयी, उसने जेब से दो रुपये निकाल के दे दिया, नंदू ऐसे लोगो की ज्यादा मदद तो नही कर सकता था लेकिन थोड़ा बहुत बिना किये भी उसे चैन नही मिलता था,
भिखारी ने नंदू को बहुत सारी दुआएं दी, और आशीर्वाद भी दिया।
नंदू कर बाबूजी चिंतामणि जी ये सब देख रहे थे, उन्होंने भी नही टोका क्योकि वो जानते थे कि नंदू के दिल मे सबके लिए दया है।

दोनो आगे बढ़ गए, और थोड़ी देर में एक दवाई की दुकान पर पहुंचे,
नंदू अंकल और यमराज भी नंदू के फॉलोवर थे, उनके हर अपडेट पर टूट पढ़ने वाले ईमानदार फॉलोवर, फॉलो करते करते केमिस्ट शॉप तक पहुंच गए।
"कितने लोग बीमारी की दवा लेने आये है ना……हर किसी को कोई ना कोई बीमारी है" नंदू अंकल ने यमराज से कहा।

"हाँ, ये हॉस्पिटल ही तो मेरे तक पहुंचने का रास्ता है"  यमराज बोला।

"मैं बिल्कुल सहमत नही हूँ, हर कोई इस रास्ते से थोड़ी ना आता है" नंदू अंकल ने कहा।

"हाँ….कुछ आपके जैसे लोग भी नही आते, उन्हें डायरेक्ट आना पसंद होता है, अकाल मृत्यु और अकस्मात मृत्यु को छोड़कर लगभग सभी इधर आते है" यमराज बोला।

"उनकी मजबूरी है आना" नंदू ने कहा।

"मजबूरी नही , और अधिक जीने की इच्छा, जीने की चाहत होती है" यमराज बोला।

"तो मैंने भी वही बोला, जीना भी तो मजबूरी ही है ना" नंदू ने कहा।

"जीना मजबूरी नही है, मजबूर वो लोग होते है जो हालात से लड़ना नही जानते, मजबूर वो लोग है जो अपनी लाचारी, अपनी कमजोरी को अपनी मजबूरी बताकर खुद को अपनी नजरो में गिरते नही देखना चाहते और मजबूरी को ताक़त बनाने की कोशिश करते है, लेकिन ये भूल जाते है मजबूरी कभी ताकत नही होती" यमराज ने कहा।

"तुम नही समझोगे, मेरी बात तुम्हारी समझ में नही आएगी, मजबूरी को समझना है तो एक बेटी के पिता के नजर से देखो, जिसे पाल पोसकर अपनी बेटी किसी को दान कर देनी होती है" नंदू ने कहा।

"आप टॉपिक से भटक रहे है अंकल, और वैसे भी आपका तो बेटा ही है, आपकी कोई बेटी थी नही, फिर आप क्यो मजबूर हो गए थे" यमराज ने सवाल किया।

"वो सब छोड़ो, वो देखो नंदू का नम्बर आ गया, मैं यही खड़ा हूँ, तुम जाओ और देखो उसकी मजबूरी" नंदू अंकल ने कहा और खुद जाकर नंदू के रिक्शे में चिंतामणि के साथ बैठ गया। वो अलग बात है कि चिंतामणि ना उसे सुन सकता है ना देख सकता है, ना ही महसूस कर सकता है।

छोटा नंदू ने दुकानदार से पूछा - "कितने पैसे हो गये?"

"साढ़े इक्कतीस रुपये" दुकानदार ने जवाब दिया।

"इतने महंगे" नंदू का मुंह खुला का खुला रह गया।

"दवाईयां तो होती ही महंगी है बेटा, अब हम कौन सा घर मे बनाते है" दुकानदार बोला।

नंदू ने सारे पैसे जेब से निकाले, उसके पास तो तीस ही रुपये थे, फिर भी वो इधर उधर के जेब टटोलने लगा, ताकि कुछ पैसा और मिल जाए लेकिन कुछ नही मिला, उसने दुकानदार से कहा- "लेकिन मेरे पास तो अभी तीस ही रुपये है।"

"तीस से काम नही चलेगा, डेढ़ रुपये और लाओगे तब दवाई देंगे" दुकानदार ने कहते हुए दवाईयां काउंटर से उठाकर वापस रख दी।

नंदू ने बिना दवाई के जाते हुए बाबूजी की तरफ देखा जो कि रिक़्शे में बैठकर खांस रहे थे
"यहाँ से घर जाकर पैसे लेकर वापस यहाँ आने में वक्त बहुत लगेगा, किसी से मांगकर देखता हूँ, क्या पता कोई मदद कर दे, इतने सारे लोगो मे कोई तो समझेगा मेरी तकलीफ" नंदू ने खुद से कहा।

नंदू ने देखा पास में एक मोटी औरत खड़ी थी, साइड पर्स टांका हुआ था, गोल्डन साड़ी और श्रृंगार किया हुआ था, देखने मे पैसे वाली लग रही थी।

"माता जी….एक मदद चाहिए" नंदू बोला।

"क्या हो गया भाई?" अनजान लड़के के अचानक आकर मदद मांगने की बात देखकर थोड़ा ऊंची आवाज में औरत ने पूछा।

"मैंने दवाई लेनी है, पैसे कम पड़ रहे है , डेढ़ दो रुपये की मदद कर देते तो किसी गरीब का भला हो जाता" नंदू ने सहमी आवाज में कहा। आज तक कीसी के सामने ऐसे हाथ नही फैलाया था तो उसे एक तरह से शर्म आ रही थी, आवाज में आत्मविश्वाश की भारी कमी थी।

"हाये राम! कैसे कैसे लोग है, भीख मांगने के लिए तरीका ढूंढ ही लेते है, मेरे पास नही है भाई, किसी और से माँग" औरत ने कहा। और उधर से थोड़ी दूर जाकर खड़ी हो गयी।

नंदू ने एक अंकल को ये बात बोली उसने भी अपना पल्ला झाड़ लिया…. बहुत लोगो के सामने गिड़गिड़ाकर भी कोई बात नही बनी, एक दो लोगो ने दस पांच पैसे दिए भी , लेकिन बात रुपयों की थी, पूरे डेढ़ रुपया कम पड़ रहा था, पंद्रह बीस पैसो से काम नही चलेगा।
"जवान हो, हट्टे कट्टे हो, हाथ पैर सलामत है, मेहनत करो ना भाई, ऐसे कुत्तों की तरह भीख मांगकर पेट भरने से तो अच्छा है कि खुदखुशी कर लो जाकर, कब तक देगा कोई तुम्हे, मांगने की आदत चार पैसे दे सकती है इज्जत नही, और जिसकी इज्जत नही रह जाती उस इंसान के जिंदा रहने का कोई फायदा नही" अनजान शख्स बहुत बड़ी बात बताकर गया था जो जिंदगी भर छप गयी  थी नंदू के दिमाग मे, मरने के कुछ देर पहले भी इस अनजान शख्स को याद करके मुस्कराया था नंदू,

यमराज हँसते हुए बोला- "वाह! वाह रे तेरी किस्मत….थोड़ी देर पहले उस  ग़रीब अपाहिज को देने के लिए दो रुपये थे तेरे पास, और अभी अपने बाबूजी के दवाई के पैसे पूरे करने के लिए तू खुद भिखारी बन गया, वक्त बदल जाता है ये तो पता है, लेकिन इतनी जल्दी वक्त बदल जायेगा सोचा भी नही था।,

छोटा नंदू मदद माँग माँग के परेशान हो गया, सब उसे भिखारी समझ रहे थे, और उसकी ये दशा देखकर उसके बाबूजी चिंतामणि ने खुद से कहने लगा- "मेरी इस हालत ने तुझे भीख मांगने को मजबूर कर दिया बेटा! भगवान मुझे जल्दी उठा लेना, मैं अपने इलाज के चक्कर मे अपने बेटे की ऐसी हालत नही देख पाऊँगा"

"ऐसा क्यो बोल रहे हो बाऊजी……आप तो मेरे जीने का सहारा हो, आपकी छाया जब तक है तब तक मुझमें कुछ भी कर गुजरने की हीम्मत है, मेरी हीम्मत हो आप, मैं टूट जाऊंगा आपके बिना" नंदू अंकल ने कहा, लेकिन उसकी यमराज के शिवा कौन सुनता था? कोई भी नही।

उधर छोटा नंदू भी सोच में खड़ा था, ना जाने क्या सोच रहा था….
यमराज ने छोटे नंदू को सोच में डूबा देखकर कहा- "कही तुम उस भिखारी के पास जाकर दो रुपये वापस लाने की तो नही सोच रहे हो ना"

लेकिन नंदू ऐसा नही सोच रहा था, वो मोटी औरत जिसने नंदू को फटकार लगाई थी वो नंदू के रिक्शे के पास जाकर चिंतामणि से कह रही थी।

"क्या आप मुझे मेरे घर तक छोड़ देंगे, ज्यादा दूर नही पास ही मैं है…."

औरत की बात सुनकर नंदू दौड़कर रिक्शे के पास आया और बोला- "क्यो नही? जरूर छोड़ दूंगा….कितना दूर है आपका घर"

औरत ने देखा कि ये वही भिखारी है जो पैसे माँग रहा था औरत ने हैरानी से पूछा- "ये रिक्शा तुम्हारा है?"

" हाँ, और बाबूजी भी हमारे है, इन्ही के लिए दवाई के लिए पैसे कम पड़ रहे थे" नंदू ने जवाब दिया।

"कितने पैसे कम  पढ़ रहे थे" औरत ने पूछा।

"डेढ़ रुपये…." नंदू ने कहा और बाबूजी को रिक्शे से उतारकर एक पेड़ की छाया में बैठा दिया।

औरत ने डेढ़ रुपया निकालकर नंदू की तरफ बढ़ाया तो नंदू ने लेने से इनकार करते हुए कहा- "आपके घर की दूरी देखकर तय होगा आपसे कितने पैसे लेने है, अब मेरी आँखें खुल गयी है, जितनी देर में मदद मदद चिल्लाकर भीख मांग रहा था, चार लोगों को घर तक छोड़ देता तो मुझे अभी तक इज्जत से दो की जगह चार रुपये मिल जाते" नंदू ने कहा और उस औरत  को उसके बताए रास्ते मे ले जाने लगा।

औरत के घर पहुंचा तो एक रुपया लेकर पंद्रह पैसे वापस करने लगा, लेकिन औरत दिल की साफ थी, उसने जबरदस्ती दो रुपये उसे थमाते हुए कहा- "देखो बेटा जिद मत करो, अगर कोइ और सवारी नही मिली तो बाबूजी की दवाई नही खरीद पाओगे, इन्हें रख लो, और दवाई ले लेना"

नंदू ने दो रुपये ले लिए और खुश होकर वापस दवाई की दुकान की तरफ आ गया।

कहानी जारी है


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4 Comments

Khan sss

29-Nov-2021 07:23 PM

Badhiya

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Fiza Tanvi

09-Sep-2021 07:50 AM

Bahut accha

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🤫

08-Sep-2021 10:18 PM

बढ़िया कहानी है सोनू जी..

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